झारखंड, जिसे जंगलों की धरती, खनिजों की खान और सांस्कृतिक विविधता का राज्य कहा जाता है, सिर्फ प्राकृतिक संसाधनों और जनजातीय परंपराओं के लिए ही नहीं, बल्कि अपने पवित्र धार्मिक स्थलों के लिए भी जाना जाता है। इन्हीं स्थलों में सबसे ऊँचा, सबसे पवित्र और सबसे प्रसिद्ध नाम है – पारसनाथ पहाड़, जिसे सम्मेद शिखरजी के नाम से भी जाना जाता है। गिरिडीह जिले में स्थित यह पर्वत 1365 मीटर की ऊँचाई के साथ झारखंड की सबसे ऊँची चोटी है, लेकिन इसकी असली ऊँचाई इसकी आध्यात्मिक महानता में छुपी है। यह कोई साधारण पहाड़ी नहीं, बल्कि जैन धर्म के लिए एक मोक्षभूमि है – वह स्थान जहाँ 24 में से 20 तीर्थंकरों ने मोक्ष प्राप्त किया था। यही कारण है कि यह पर्वत न केवल झारखंड बल्कि पूरे भारत में जैन समाज की सबसे पवित्र तीर्थ यात्रा का केंद्र है। परंतु इस पर्वत की विशेषता सिर्फ जैन धर्म तक सीमित नहीं है। यह झारखंड के आदिवासी समुदायों की आस्था का भी प्रतीक है। संथाल जनजाति इसे "मारंग बुरु" कहकर पूजती है, जिसका अर्थ होता है – "महान पर्वत"। इनके लिए यह पर्वत देवताओं का निवास है, जहाँ हर साल पारंपरिक सेंदरा उत्सव मनाया जाता है। इस पहाड़ी का महत्व झारखंड की धार्मिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक पहचान को एक साथ जोड़ता है। जहां एक ओर मधुबन में बसे भव्य मंदिर और शांत वातावरण आत्मिक शांति प्रदान करते हैं, वहीं दूसरी ओर घने जंगल, चढ़ाई भरा रास्ता और हरियाली से भरा दृश्य इसे प्रकृति प्रेमियों और ट्रेकिंग करने वालों के लिए भी आदर्श स्थान बना देता है।
पारसनाथ पहाड़ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
झारखंड के गिरिडीह जिले में स्थित पारसनाथ पहाड़, जिसे जैन धर्म में सम्मेद शिखरजी कहा जाता है, न केवल झारखंड की सबसे ऊंची चोटी है बल्कि भारतीय धार्मिक इतिहास में भी इसका एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। यह वह स्थान है जहाँ जैन धर्म के 24 में से 20 तीर्थंकरों ने अंतिम साधना करते हुए मोक्ष की प्राप्ति की थी। इस कारण इसे मोक्ष भूमि, परम पुण्य क्षेत्र, और तीर्थराज सम्मेद शिखर के नाम से जाना जाता है।
प्रारंभिक मान्यताएँ और पौराणिक महत्व
पारसनाथ पहाड़ का नाम भगवान पार्श्वनाथ के नाम पर पड़ा है, जो जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर थे। ऐसी मान्यता है कि भगवान पार्श्वनाथ ने भी इसी पहाड़ी पर गहन तपस्या कर अंततः मोक्ष प्राप्त किया। जैन धर्म के प्राचीन ग्रंथों और कथाओं में सम्मेद शिखर का उल्लेख एक ऐसे आध्यात्मिक स्थान के रूप में किया गया है जहां आत्मा अपने अंतिम लक्ष्य – मोक्ष – को प्राप्त करती है। यह पर्वत अनादिकाल से जैन तपस्वियों, साधकों और मुनियों की तपस्थली रहा है। मान्यता है कि इस स्थान पर तीर्थंकरों के अलावा हजारों तपस्वियों ने भी मोक्ष प्राप्त किया, जिससे इसकी पवित्रता और दिव्यता और अधिक बढ़ गई।
ऐतिहासिक साक्ष्य और ग्रंथों में उल्लेख
कल्पसूत्र, तीर्थमाला, और श्री शिखर पुराण जैसे जैन धर्म के ग्रंथों में इस पर्वत की महिमा का विस्तार से वर्णन मिलता है। इन ग्रंथों में बताया गया है कि भगवान ऋषभदेव (प्रथम तीर्थंकर) के समय से ही इस पर्वत को तपस्या के लिए उपयुक्त और विशेष स्थान माना जाता रहा है। प्राचीन काल में जैन तीर्थयात्री यहां नंगे पांव पदयात्रा करते हुए आते थे और मोक्ष की भावना के साथ पर्वत पर चढ़ाई करते थे। यह परंपरा आज भी जीवित है और हर साल हजारों श्रद्धालु इसी भावना से यात्रा करते हैं।
प्राचीन स्थापत्य और अवशेष
पारसनाथ पहाड़ पर स्थित 24 टोंक (मंदिर) इस बात के प्रमाण हैं कि यह क्षेत्र सदियों से तीर्थ क्षेत्र रहा है। यहां की वास्तुकला, मंदिरों की शैली, पत्थर की मूर्तियां और प्राचीन लिपियों में खुदे शिलालेख इस बात के ऐतिहासिक साक्ष्य हैं कि यह स्थल मौर्य काल से लेकर मध्यकालीन भारत तक लगातार धार्मिक गतिविधियों का केंद्र रहा है। इसके अलावा, यहां से प्राप्त कुछ मूर्तियाँ, खंडहर, और पुरातात्विक अवशेष भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा सुरक्षित रखे गए हैं। इनसे यह स्पष्ट होता है कि यह क्षेत्र केवल धार्मिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से भी महत्वपूर्ण रहा है।
जैन परंपराओं में स्थान
जैन धर्म में चार प्रमुख तीर्थस्थलों को "चर चार धाम" कहा जाता है — जिनमें से सम्मेद शिखरजी प्रमुख है। यहां जैन साधु-साध्वियाँ आज भी दीक्षा, उपवास, संलेखना (इच्छामरण) और कठोर तप करते हैं। यह भी मान्यता है कि इस स्थल की परिक्रमा और दर्शन मात्र से पाप नष्ट हो जाते हैं और मोक्ष का द्वार खुलता है। यही कारण है कि इसे तीर्थों का तीर्थ कहा गया है।
संथाल समुदाय और सेंदरा पर्व
यह पर्वत केवल जैन धर्म के लिए ही पवित्र नहीं है। संथाल जनजाति इसे "मारंग बुरु" यानी "महान पहाड़" कहती है और इसे अपने सर्वोच्च देवता का प्रतीक मानती है। हर वर्ष संथाल समुदाय यहां "सेंदरा" (शिकार पर्व) मनाता है, जिसमें सामूहिक रूप से जंगल में पारंपरिक शिकार किया जाता है। यह परंपरा जैन धर्म के "अहिंसा" सिद्धांत के पूर्णतः विपरीत है। इसी कारण वर्षों से जैन समुदाय और संथालों के बीच इस पर्व को लेकर विवाद चलता आ रहा है।
विवाद और सरकारी हस्तक्षेप
2023 में सम्मेद शिखरजी को "पर्यटन स्थल" घोषित किए जाने की घोषणा ने देशभर के जैन समाज में आक्रोश पैदा कर दिया। उनका मानना है कि यह स्थल केवल तीर्थ है और इसे किसी भी प्रकार के व्यवसायिक, सांस्कृतिक या पारंपरिक गैर-जैन गतिविधियों के लिए उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। जैन समाज के विरोध के बाद केंद्र सरकार को यह स्पष्ट करना पड़ा कि सम्मेद शिखरजी की धार्मिक पवित्रता से कोई समझौता नहीं किया जाएगा। वहीं दूसरी ओर, संथाल समुदाय का कहना है कि यह उनकी आदिवासी पहचान और परंपरा का अभिन्न हिस्सा है, जिसे किसी भी सूरत में बंद नहीं किया जा सकता।
कैसे पहुँचे पारसनाथ पहाड़?
- रेल मार्ग: हावड़ा–दिल्ली रूट पर स्थित पारसनाथ रेलवे स्टेशन सबसे नजदीक है। वहाँ से मधुबन तक टैक्सी या ऑटो से पहुँचा जा सकता है।
- सड़क मार्ग: गिरिडीह, धनबाद, हजारीबाग जैसे शहरों से सड़क मार्ग द्वारा मधुबन गांव तक पहुंचा जा सकता है।
- हवाई मार्ग: निकटतम हवाई अड्डा रांची (लगभग 180 किमी) है।
पदयात्रा और ट्रेकिंग अनुभव
मधुबन से चोटी तक की 27 किलोमीटर की यात्रा प्रकृति और भक्ति का संगम है। हर कदम पर सुंदर मंदिर, जल स्रोत, पक्षियों की आवाज़ और हरियाली यात्रियों को आनंदित करती है। डोली सेवा भी उपलब्ध है, जिससे बुजुर्ग और असहाय व्यक्ति भी यात्रा कर सकें।
मुख्य स्थल
- 20 तीर्थंकरों के टोंक: हर टोंक किसी तीर्थंकर की स्मृति से जुड़ा है
- जल मंदिर: एक सुंदर जल स्रोत के किनारे स्थित मंदिर
- चरण पदुका: तीर्थंकरों के पदचिन्हों का स्थल
- मधुबन मंदिर परिसर: पहाड़ी तलहटी में भव्य जैन मंदिरों का समूह
प्राकृतिक दृश्य और ट्रेकिंग स्वर्ग
यह पहाड़ न केवल तीर्थ है, बल्कि ट्रेकिंग और इको-टूरिज्म का भी बेहतरीन स्थान बनता जा रहा है। घाटियाँ, हरियाली, पक्षी और शांत जंगल पर्यटकों को प्रकृति से जोड़ने का अवसर देते हैं।
आवास और सुविधाएं
मधुबन गांव में कई धर्मशालाएं, होटल और लॉज उपलब्ध हैं। जैन समाज की धर्मशालाएं शुद्ध शाकाहारी भोजन और पूजा-अर्चना की सुविधा भी देती हैं।
क्या करें और क्या ना करें:
- यात्रा से पहले मौसम की जानकारी लें
- आरामदायक जूते-कपड़े और पानी रखें
- शांति और स्थानीय परंपराओं का सम्मान करें
- मंदिरों में बिना अनुमति के फोटोग्राफी ना करें
- जंगल क्षेत्र में कचरा न फैलाएं
सम्मेद शिखरजी न सिर्फ झारखंड की सबसे ऊंची चोटी है, बल्कि यह भारतीय सभ्यता, अध्यात्म और विविध संस्कृति का अद्वितीय प्रतीक है। यह एक ऐसा स्थल है, जहां आस्था, अहिंसा, परंपरा और प्रकृति का अद्वितीय संगम होता है। सरकार, समाज और स्थानीय समुदाय अगर मिलकर इसका संतुलित विकास करें, तो यह स्थल आने वाली पीढ़ियों तक आस्था और पर्यटन दोनों का आदर्श केंद्र बना रहेगा।